250-500 करोड़ के जुर्माने का औचित्य क्या है?



250-500 करोड़ के जुर्माने का औचित्य क्या है?

250 करोड़ 500 करोड़ का जुर्माना लगाने का आईडिया कौन सोच सकता है भारत सरकार डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट डीपीडीपी के नियम लागू करने वाली है और इन नियमों के अनुसार बताया जा रहा है कि किसी पत्रकार या किसी संगठन के लिए बिना अनुमति के किसी का भी नाम किसी की पर्सनल जानकारी छापना उसे बर्बाद कर सकता है क्योंकि इस मामले में 250 करोड़ का जुर्माना रखा गया है और नहीं देने पर इसे बढ़ाकर 500 करोड़ कर दिया जाएगा एक गरीब देश में जहां लोग महीने का 25,000 भी नहीं कमा पाते हैं जहां ज्यादातर रिपोर्टर की सैलरी 50 से 60 हजार भी नहीं होती होगी उस देश में किस अफसर को किस मंत्री को यह ख्याल आया कि अगर किसी का नाम उसकी अनुमति के बिना छाप दिया जाएगा तो छापने वाले पर 500 250 करोड़ का जुर्माना लगेगा यह किस पर लगाने की तैयारी हो रही है नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले 30 से अधिक संगठनों का मानना है कि अगर डीपीडीपी एक्ट के यह नियम लागू हो गए तो यूबर के लिए भी किसी का नाम लेकर बोलना या लिखना मुश्किल हो जाएगा अंजलि भारद्वाज का कहना है कि पत्रकार और नागरिक व्यक्तिगत सूचनाएं नहीं निकाल सकते हैं अगर आपको लोन राइट ऑफ के बारे में पता करना होगा कि किस-किस के लोन माफ हो रहे हैं तो अब यह जानकारी नहीं मांग सकते इसे पर्सनल सूचना माना जाएगा जबकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है नाम मांग सकते हैं किसी व्यक्ति को राशन मिल रहा है या नहीं इसकी सूचना पत्रकार या व्यक्तिगत तौर पर कोई नहीं ले सकता सूचनाएं हमेशा व्यक्तिगत तरीके से ही जमा की जाती हैं लोग सूचनाएं निकालते हैं क्योंकि अब आप डाटा फुडिशरी बना दिए जाएंगे इसमें पत्रकार भी हैं और यूबर भी शामिल हैं क्योंकि पत्रकार को इससे छूट है इस बारे में कहीं लिखा हुआ नहीं है जब भी ऐसा कानून आता है पत्रकारों के बारे में बताया जाता है कि उन्हें छूट होगी अगर आप इलेक्ट्रोरल बॉन्ड की सूचना को प्रोसेस कर छापते हैं तो आप डाटा जुडिशरी बन जाएंगे आपको नाम छापने से पहले उस व्यक्ति की सहमति लेनी पड़ेगी यह डाटा फुडिशरी क्या होता है इस वीडियो में आगे हम बताएंगे लेकिन अगर पत्रकारों और यूबर के लिए किसी के बारे में पर्सनल जानकारी निकालनी इतनी मुश्किल कर दी जाएगी बिना अनुमति के नाम छापने पर करोड़ों रुपए का जुर्माना लगेगा तो इस देश में बची खुची पत्रकारिता भी मिट्टी में मिल जाएगी लोग में क्या बोलेंगे जब नाम ही ना ले सकेंगे डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन डीपीडीपी एक्ट के बारे में आपको जानना चाहिए कहीं ऐसा ना हो कि कब्र से औरंगजेब को निकालने में आपको उलझा दिया जाए सूचना जमा करने वालों को कब्र में गाड़ने की तैयारी पूरी कर ली जाए मान लीजिए आपको किसी जज के बारे में ऐसी कोई जानकारी मिलती है उनकी संपत्ति के बारे में डिजिटल रिकॉर्ड मिल जाता है और आप जज का नाम छाप देते हैं उदाहरण के लिए इसके लिए आप जस्टिस यशवंत वर्मा से अनुमति नहीं लेते हैं तो आप पर डिजिटल प्रोटेक्शन बोर्ड 250 करोड़ तक का जुर्माना लगा सकता है नहीं देने पर 500 करोड़ कर सकता है तो मेरी रिक्वेस्ट ये रहेगी कि जो जर्नलिस्ट सोचते हैं कि हम पर कोई कानून लागू नहीं है

पत्रकारिता और RTI पर असर

 क्योंकि हमारे पास यह नोटबुक और ये पेन है तो ये एटलीस्ट अभी के समय में तो ये सच नहीं है आप भी इस कानून के नजर से अपने आप को देखिए मैंने डाटा इकट्ठा किया मैंने उसे प्रोसेस किया प्रोसेस यानी कि आपने उसको इकट्ठा करके अपने लैपटॉप पे अपने मोबाइल फोन पे डाला और फिर आपने सेलेक्ट किया कौन सा कोट आप यूज़ करेंगे नहीं करेंगे कौन सी फोटो डालेंगी कौन सी लोकेशन को आप चूज़ करेंगी अपनी फील्ड रिपोर्ट से एसेट्रा एटसेट्रा तो आप आप डेफिनेटली इस लॉ के अंदर आएंगी लेकिन बिना ताकत के सारी ताकत सरकार के पास होगी जो आपके आपके ही डेटा को नहीं आपके सोर्सेस के डेटा को भी देख सकती है थ्रू द डेटा प्रोसेसर्स एंड आपकी सोर्स कॉन्फिडेंशियलिटी एक दिन में चली जाएगी दूसरा ये कि जैसे वो ह्यूमन ट्रैफिकिंग वाला मैंने एग्जांपल बताया अभी तक वो घबराएंगी जर्नलिस्ट से लेकिन जल्दी आप घबराएंगे कि वो कहेंगी आप सपोज वो आपसे बात ना करें लेकिन आप भेज दें पुलिस रिकॉर्ड के आधार पे लिख दें लेकिन उनको एक औजार मिल गया है वो कभी भी आके कह सकती है देखिए मेरी प्राइवेसी का उल्लंघन हुआ है और आप ये भी नहीं कह पाएंगे कि मैंने कोशिश करी थी कांटेक्ट करने की जो अक्सर हमारे लिए एक बहुत बड़ा प्रोटेक्शन रहता है कि हमने कांटेक्ट करने की कोशिश करी नेशनल कैंपेन फॉर पीपल्स राइट टू इंफॉर्मेशन एनसीपीआरआई नाम के संगठन का कहना है कि डीपीडीपी एक्ट के ड्राफ्ट रूल्स में पत्रकारों को कोई छूट नहीं दी गई है डिजिटल स्पेस में जो जानकारी उपलब्ध है उसे जुटाकर रिपोर्ट करने वाले पत्रकार और यूबर इसके दायरे में आएंगे यह आईडिया कहां से आया क्या यूबर को पता है क्या पत्रकारों और संपादकों को पता है कि इस कानून के नियमों के जरिए उन पर शिकंजा तो कसा नहीं जा रहा है 2017 में वसुंधरा राजे राजस्थान की मुख्यमंत्री थी पत्रकारों को कंट्रोल करने का आईडिया आया एक कानून का ड्राफ्ट ले आई कि राज्य के सेवानिवृत्त एवं सेवारत न्यायाधीशों मजिस्ट्रेटों और लोक सेवकों यानी अफसरों की जांच से जुड़ी खबरों को छापने से पहले सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी अगर अनुमति लेने से पहले नाम छाप दिया तो 2 साल के लिए जेल में डाल दिए जाएंगे इस कानून का इतना विरोध हुआ कि ड्राफ्ट को सिलेलेक्ट कमेटी भेज दिया गया और दिसंबर 2017 में यह कानून मर गया यह विधेयक इसलिए लाया जा रहा था ताकि पत्रकार भ्रष्टाचार के मामले में किसी का नाम उजागर ना कर सकें 

क्या सरकार को जवाब देना चाहिए?

कहीं ऐसा तो नहीं कि राजस्थान में बीजेपी जो इच्छा पूरी नहीं कर सकी वो अब डिजिटल पर्सनल प्रोटेक्शन एक्ट के जरिए पूरा करना चाहती है मंत्री अफसर या जज से पूछकर उनके नाम लिखे जाएंगे कोई कहेगा कि हां लिख लीजिए राजस्थान में वह कानून पास हो गया होता तो आप रिटायर्ड अधिकारी का नाम भी सरकार से पूछे बगैर नहीं छाप सकते थे 2 साल की जेल हो जाती लेकिन यहां तो 250 करोड़ का जुर्माना रखा गया है सात पीढ़ियां और उससे भी बिय्ड गुलाम हो जाएंगी सरकार ने कानून बनाया तो उन डिजिटल प्लेटफार्म के बारे में सोच कर ही जिनके पास आपका डाटा होता है जो जानते हैं कि आप क्या-क्या मंगाते हैं क्या-क्या खरीदते हैं वे आपकी निजी जानकारी किसी और कंपनी को बेच सकते हैं या गलत इस्तेमाल कर सकते हैं जैसे कोई डिलीवरी ऐप आपकी आवाज रिकॉर्ड नहीं कर सकता आपका डाटा किसी और को नहीं बेच सकता यहां तक तो बात ठीक है लेकिन इसके कारण पत्रकारों मीडिया संगठनों राजनीतिक दल रिसर्च ग्रुप आरटीआई कार्यकर्ता भी इसके दायरे में आते हैं सरकार को तुरंत इस बारे में स्पष्टता जाहिर करनी चाहिए सरकार ने डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट के रूल्स में तो पत्रकारों की जिक्र छोड़ो किसी की जिक्र नहीं की जबकि उनको जो लोग पब्लिक इंटरेस्ट में डाटा और सूचना के साथ काम कर रहे हैं उनको इस कानून से बाहर रखना चाहिए था इसके दायरे से बाहर रखना चाहिए था वो पूरी दुनिया में ऐसे कानून जहां बने हैं तो पत्रकार का काम है कि वो खोजे और लोगों की सूचनाएं दें जो कोई गलत काम कर रहा है तभी कहीं सुधार हो सकता है इस कानून में यदि आप देखें तो हर नागरिक पर लागू है हर पेशे पर लागू है हर कंपनी पर लागू है संस्था संगठन पर लागू है और सरकार पर लागू नहीं है और बड़ी कंपनियों के पास रास्ता है जिनके ऊपर ये कानून आना चाहिए ये कानून आना चाहिए था बड़ी कंपनियों पर कानून आना चाहिए था सरकार पर बड़ी कंपनी क्यों क्योंकि वो सारे फस के माध्यम से सारा हमारा डाटा खींच के रखते हैं और फिर बेचते हैं और हमसे परमिशन तो हम क्लिक करते ही हम परमिशन देते हैं Google में आप बनाओ कुछ Facebook में करो कुछ तो आप परमिशन पिछले पीछे 15 पेज है जिसको हमें पढ़ने का टाइम नहीं है लेकिन हम हां भर देते हैं क्योंकि उसमें आने के लिए हमें करना पड़ेगा उन पर तो कोई पेनल्टी नहीं लगेगा लेकिन नागरिक हो या पत्रकार हो पत्रकार किसी का नाम ले तो उसको परमिशन लेना पड़ेगा उससे सहमति लेनी पड़ेगी अब किसी जो काम कोई गलत कर रहा है वो क्यों सहमति देगा अपना तो वो सहमति नहीं देगा तो पत्रकारिता एक तरीके से खत्म यूबर का काम खत्म मीडिया का काम खत्म टेलीविजन का काम खत्म सोशल मीडिया के ऊपर बहुत बड़ी दिक्कत है क्योंकि चाहे व्यक्ति हो चाहे चाहे समूह हो चाहे दो लोग मिलके डेटा फिडशरी हम सब बनेंगे।

पत्रकारों, शोधकर्ताओं और सामाजिक संगठनों को क्या छूट मिलेगी?

 जो किसी और की सूचनाओं को अपने फोन के अंदर रखते हैं या अपने कंप्यूटर में रखते हैं और उसको हम कहीं ना कहीं यदि या तो छापते हैं या किसी को भेजते हैं बिना परमिशन के 250 करोड़ का पेनल्टी सरकार के अधीन डाटा प्रोटेक्शन बोर्ड में लगेगा 250 करोड़ नहीं दो तो 500 करोड़ हो सकता है तो इतना अंग्रेजों के टाइम में भी ऐसा कानून नहीं था जो अब आ गया है जो सरकार को पूरा एमावर करता है कंपनियों को छूट देता है और बाकी लोगों को तानाशाही के इस दायरे में लाता है पर्सनल डाटा बचाने के नियम बिल्कुल सख्त होने चाहिए लेकिन इसके बहाने भ्रष्ट लोगों का डाटा नहीं बचाया जा सकता कहीं सरकार निजी जानकारी ना देने के नाम पर अपना डाटा देने से बचना तो नहीं चाहती है हमें इसके बारे में सोचना पड़ेगा हो सकता है कागजों पर सरकार का मकसद ठीक हो लेकिन इन नियमों की मंजिल कहां है इसे देखने और समझने की जरूरत है अगस्त 2023 में डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट डीपीडीपी पास हुआ अब उसके नियमों का ड्राफ्ट तैयार हुआ है अगर सरकार ने उन नियमों को मंजूरी दे दी तो आपका हमारा या किसी भी संगठन या राजनीतिक दलों के लिए भी भ्रष्टाचार के मामले में किसी का नाम लेकर बोलना मुश्किल हो जाएगा और नाम से जानकारी हासिल करनी मुश्किल हो जाएगी यह कहना है 30 से अधिक नागरिक संगठनों का एनसीपीआरआई के नेतृत्व में इन संगठनों की दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई और इसके प्रतिनिधि विपक्ष के सांसदों से नेताओं से लगातार मुलाकात करने लगे हैं ताकि वे भी समझ जाएं कि इस नियम से उन पर क्या खतरा आने वाला है भारत में हर साल सूचना के अधिकार के तहत 60 लाख आवेदन दायर किए जाते हैं इनके जरिए लाखों लोग जानकारी जमा करते हैं और भ्रष्टाचार को उजागर करते हैं लेकिन अब पर्सनल जानकारी की परिभाषा बदली जा रही है पर्सनल जानकारी के नाम पर बहुत सारी जानकारियां अब नहीं दी जा सकेंगी और ऊपर से अगर बिना अनुमति के किसी का नाम छापा या किसी और तरीके से इस्तेमाल किया तो 250 करोड़ का जुर्माना लग सकता है ऐसा नागरिक संगठनों का मानना है तो क्या इस जुर्माने की इतनी बड़ी रकम से लाखों लोगों को डराने की तैयारी चल रही है भारत सरकार हिंसा से ग्रसित मणिपुर के लिए ₹500 करोड़ का प्रावधान करती है अपने बजट में यमुना की सफाई के लिए दिल्ली सरकार ₹00 करोड़ का प्रावधान करती है और डाटा प्रोटेक्शन के जुर्माने से 500 करोड़ सरकार अपना खर्चा क्या इसी जुर्माने से निकालेगी सरकार को साफ करना चाहिए कि 250 करोड़ का जुर्माना आप किस पर लगा रहे हैं क्या किसी संगठन पर या व्यक्ति पर किसी व्यक्ति की हैसियत 250 करोड़ की तो नहीं होती तब भी क्या इतना जुर्माना लगाया जाएगा

क्या RTI से मिलने वाली सूचनाओं पर भी यह कानून लागू होगा?

 सरकार को बताना ही चाहिए कि इस कानून से पत्रकारों और यूबरों के लिए क्या संरक्षण है यह तो विचित्र बात है पत्रकार अगर मतदाता सूची या राशन कार्ड में धांधली की पड़ताल करेगा और एक-एक आदमी से नाम छापने से पहले अनुमति लेने जाएगा तो एक रिपोर्ट तैयार करने में कई साल लग जाएंगे उतने में वो मंगल ग्रह से लौट आएगा पत्रकारिता ही बंद हो जाएगी किसके दिमाग से ऐसे ख्याल उपजते हैं पत्रकारिता तो पहले ही खत्म हो गई कुछ ही पत्रकार रह गए हैं जो महीनों दस्तावेजों को खंगालते हैं अंत में खोजी रिपोर्ट छापते हैं तो क्या डीपीडीपी एक्ट के ये नियम ऐसे पत्रकारों की कलम को हमेशा के लिए रोक देंगे फिर खबर कैसे लिखी जाएगी अगर पत्रकारों या मीडिया संगठनों पर इतना भारी जुर्माना लगेगा तब तो कोई नाम ही नहीं छापेगा तो क्या इस तरह से खबर लिखी जाएगी कि फलानी जगह पर फलाने ने चिलाने से 10 लाख की रिश्वत ली और उलाने से मिलकर तुलाने के साथ 700 बीघा जमीन खरीद ली कैसे लिखेंगे अब खबर आपको सोचना चाहिए यह अभिषेक प्रकाश हैं यूपी कार्डर के आईएएस अधिकारी इन्हें एक उद्योगपति से कथित रूप से 5% कमीशन मांगने के आरोप में सस्पेंड कर दिया गया इन पर आरोप है कि इन्होंने 700 बीघा जमीन खरीदी है यूपी के अखबारों में अभिषेक प्रकाश के बारे में आपको बहुत सी खबरें मिल जाएंगी हम उनकी पुष्टि नहीं कर सकते लेकिन हमारा सवाल है कि अगर अभिषेक प्रकाश का नाम बिना उनसे इजाजत लिए या उनके विभाग से इजाजत लिए छाप दिया गया तो क्या छापने वाले पर जुर्माना लगेगा 250 करोड़ की फाइन लगेगी तो क्या अब इनका नाम सरकार से या व्यक्ति से पूछकर लिखा जाएगा डाटा प्रोटेक्शन बोर्ड एक सरकारी बोर्ड है और अगर सरकार चाहे तो तमाम ऐसे जर्नलिस्ट्स पे क्योंकि कोई जर्नलिस्टिक एक्सेंपशन नहीं है उसके बारे में भी चर्चा होगी अगर सरकार चाहे ऐसे तमाम जर्नलिस्ट्स पे ऐसी तमाम संस्थाओं पर ऐसे एक्टिविस्ट्स पे मूवमेंट्स पे जो कि इनकन्वीनिएंट ट्रुथ्स को उजागर करते हैं उनके खिलाफ शिकायतें हो और फिर वो जो डाटा प्रोटेक्शन बोर्ड है वो उनके ऊपर करोड़ों रुपए का फाइन लगाकर उन शिकायतों को लेकर फाइन लगाकर बंद करा सकते हैं और इसमें हम यह भी कहते हैं कि पॉलिटिकल पार्टीज को भी जागने की जरूरत है जो अपोजिशन पार्टीज हैं वो ये समझे कि ये सिर्फ लोगों की ही प्रॉब्लम नहीं है पॉलिटिकल पार्टीज की भी प्रॉब्लम है सोशल मीडिया सेल जो है पॉलिटिकल पार्टीज के वो जो है वो सारे डेटा फिडिशरी बन जाएंगे और सरकार ने कहा है कि हम तय करेंगे कौन डेटा फिडिशरी है और कौन नहीं है तो रूलिंग पार्टी का आईटी सेल डेटा फिडिशरी नहीं होगा उसके ऊपर ये कानून नहीं लागू होगा और अपोजिशन के सारे आईटी सेल्स जो है वो डाटा फिडिशरी बनाए जाएंगे तो ये तो लोकतंत्र के लिए एक बहुत ही भयानक कानून है जिसका हमें विरोध करने की जरूरत है हाल के चुनाव में आपने देखा होगा कि दिल्ली में महाराष्ट्र में मतदाता सूची में नामों को लेकर कितने सवाल उठे अब अगर आप चेक करने के लिए नाम मांगेंगे कि फला मतदाता पर शक है तो यह कहकर जानकारी नहीं दी जाएगी कि हम फोटो और पता नहीं देंगे क्योंकि उससे उसकी निजता भंग होगी तब आप इस आरोप की जांच कैसे करेंगे कि असली मतदाता का नाम काटकर उसकी जगह किसी और को मतदाता तो नहीं बना दिया गया मतदाता सूची का फ्रॉड आप कैसे पकड़ेंगे कई बार जब कोई पेंशन या छात्रवृत्ति का घोटाला होता है तो आप सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगते हैं फिर पता करते हैं कि यह आदमी सही है या नहीं तो क्या अब इसकी जानकारी नहीं दी जाएगी यह कहकर कि किसी की निजी जानकारी नहीं देंगे 

अगर कोई भ्रष्टाचार उजागर करता है, तो क्या उसे भी जुर्माने के डर से चुप करा दिया जाएगा?

तब तो भ्रष्टाचार को खुला सपोर्ट मिल जाएगा ये सब सवाल उठा रहे हैं भारत के 30 संगठन और एनसीपीआरआई निखिल डे का कहना है कि पत्रकार आरटीआई के जरिए कितनी ही सूचनाएं लेते हैं उनकी खबरें उससे बेहतर होती हैं लेकिन अब उनके लिए इस तरह की खबरें लिखने का मतलब खतरों से खेलना हो जाएगा भयंकर खतरा है आरटीआई की पूरी लड़ाई एक झटके में खत्म लेकिन वो खत्म केवल नहीं अंग्रेजों के टाइम के यदि हम देखेंगे प्री आरटीआई इट वास द ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट केवल आपने कोई कॉन्फिडेंशियल चीज को छाप दिया या टॉप सीक्रेट को छाप दिया तो आपके खिलाफ कारवाई हो सकती थी अब इस कानून में आपने बिना कंसेंट किसी का नाम छाप दिया और उसको वो क्यों देगा कंसेंट यदि आप उसका कुछ उजागर कर रहे हो तो वो जा सकता है और आपके ऊपर वो करोड़ों के फाइन वो पर्सनली जा सकता है कोई सरकार नहीं इन खतरों को ठीक से समझने की जरूरत है राजनीतिक दलों को भी और आम नागरिकों को भी पत्रकारों को भी डाटा ऑफ जुडिशरी का मतलब यह हुआ कि किसी संगठन ने इस विश्वास पर आपका डाटा लिया दिया कि उसका इस्तेमाल अपने रिसर्च में करेगा डाटा फ्यूडिशरी वह व्यक्ति होता है जो अकेले या दूसरों के साथ मिलकर यह तय करता है कि व्यक्तिगत डाटा को कैसे और क्यों प्रोसेस कर रहा है यह खबर लिखने में भी किया जा सकता है और रिसर्च की रिपोर्ट तैयार करने में भी डीपीडीपी एक्ट आप पर तब भी लागू होगा जब आप व्यक्तिगत डाटा को प्रोसेस कर रहे हैं यानी एक पत्रकार के रूप में अगर आप कोई जानकारी डिजिटल रूप से जमा कर रहे हैं या अपने गैर डिजिटल रूप में जमा की हुई जानकारी को बाद में डिजिटल फॉर्म में बदलते हैं तो आप भी इसके नियमों के दायरे में आ जाएंगे इसलिए अगर आप तय कर रहे हैं कि व्यक्तिगत डाटा को कैसे हैंडल किया जाएगा और उस डाटा को आप प्रोसेस भी कर रहे हैं तो आपको डाटा फुडिशरी माना जाएगा अब जब ये संशोधन कर दिया गया है डेटा प्रोटेक्शन एक्ट के जरिए से ये सारी सूचनाएं हमें मिलने में बहुत ज्यादा दिक्कत होगी मिलेंगी ही नहीं ऐसी सारी सूचनाएं तो मतलब सरकार ने एक तरीके से अपनी जवाबदेही का अपने भ्रष्टाचार को रोकने का जरिया बंद कर दिया है एनपीएस नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स हैं बैंक्स के लोग जानना चाहते हैं कि ये कौन पूंजीपति हैं जिनको अरबों रुपए देके वो फरार हो जाते हैं उनके लोन माफ कर दिए जाते हैं अब कहा जाएगा यह तो व्यक्तिगत सूचना है किसी का नाम व्यक्तिगत सूचना है हम नहीं बताएंगे कोई कॉन्ट्रैक्ट है लोग जानना चाहते हैं कि कॉन्ट्रक्टर कौन है कंपनी कौन थी कहा जाएगा ये तो व्यक्तिगत सूचना है आइडेंटिफाई अ पर्सन इसलिए सूचना नहीं मिलेगी तो मतलब भ्रष्टाचार पे जो पूरी रोक लगाने का जो तरीका था सूचना के अधिकार कानून से उसे ही ध्वस्त कर दिया गया है और उसके खिलाफ यह पूरा कैंपेन शुरू हुआ है सूचना के अधिकार में इस बात को लेकर पहले से प्रावधान है कि किस तरह की निजी सूचनाएं आप नहीं मांग सकते ना दी जा सकती है आरटीआई के सेक्शन 81 जे में पहले से दिया गया है कि ऐसी निजी सूचना नहीं ली जा सकती जिसका किसी सार्वजनिक गतिविधि या हित से संबंध नहीं है या फिर आपकी निजिता में अनावश्यक दखल देती है लेकिन डाटा प्रोटेक्शन एक्ट में इसे बदल दिया गया है कहा गया है कि आप किसी भी तरह की निजी सूचना नहीं ले सकते बहुत बारीक अंतर है पहले क्या था आप निजी सूचना ले सकते थे अगर उसका संबंध सार्वजनिक गतिविधि से है सिर्फ वही निजी सूचना नहीं ले सकते थे जिसका संबंध सार्वजनिक हित या गतिविधि से नहीं है लेकिन अब इस ड्राफ्ट रूल के लागू होने के बाद कहा जा रहा है कि किसी भी तरह की निजी सूचना नहीं मांगी जा सकेगी अब इसका क्या मतलब हुआ आप देख रहे हैं 

क्या यह कानून कंपनियों के लिए बना था, लेकिन आम लोगों पर लागू हो जाएगा?

कि किस तरह से चुनाव हर चुनाव में हम यह देख रहे हैं कि लोग कह रहे हैं कि गलत लोगों के नाम ऐड हो रहे हैं और गलत लोगों के नाम डिलीट किए जा रहे हैं जो लोग वहां रहते हैं उनके नाम डिलीट हो रहे हैं जो नहीं रहते उनके नाम ऐड किए जा रहे हैं अब कैसे मालूम पड़ेगा कि सही नाम है कि गलत नाम है जब तक कि वोटर लिस्टें पब्लिक में नहीं होंगी सर्चेबल नहीं होंगी अब जब डेटा प्रोटेक्शन कानून आता है और सरकार कहती है कि पर्सनल इंफॉर्मेशन नहीं ली जा सकती सूचना के अधिकार कानून में और पर्सनल इंफॉर्मेशन नहीं देंगे लोगों को तो ऐसी तमाम सूचनाएं जैसे इलेक्ट्रोरल रोल्स हैं जिसमें लोगों का नाम पत्ता उनकी फोटोग्राफ ये सब लगी होती है तो ये तो फिर इसके ऊपर बड़ा सवाल हो जाएगा तो उतार दिए जाएंगे ये सारी वोटर लिस्ट तो इलेक्टोरल फ्रॉड कैसे रोकेंगे लोग सूचना के अधिकार की जरूरत जरूरत आप सभी को पड़ती है पड़ेगी जब प्रेस बिक जाता है घुटनों पर गिर जाता है प्रशासन भ्रष्टाचारी से मिल जाता है तब आप क्या करते हैं आरटीआई लगाते हैं कभी आपने सोचा है कि आरटीआई लगाने की फीस इतनी कम क्यों रखी गई है ₹10 ही क्यों रखी गई है इसलिए कि कोई भी आरटीआई से सूचना हासिल कर सके लेकिन अब इस पर जुर्माने का पहाड़ लादा जा रहा है ताकि आप जुर्माने के डर से सरकार से सवाल पूछना बंद कर दें और पूछ भी लें तो निजी जानकारी के नाम पर आपको ना बताया जाए जानकारी छिपाने के लिए असंवैधानिक तरीके से इलेक्ट्रोरल बॉन्ड का कानून सरकार ने बनाया था इसी सरकार ने आप उस पर भरोसा कर रहे हैं कि वह आपकी निजी जानकारी की रक्षा कर रही है आपको समझना यही है कि वह निजी जानकारी की रक्षा किसके लिए कर रही है

पत्रकारों और नागरिक संगठनों को मिलकर सरकार से इस पर स्पष्टीकरण मांगना चाहिए।

 खुद को बचाने के लिए अपने मंत्रियों और अफसरों को बचाने के लिए या आपके पर्सनल डाटा को बचाने के लिए यह खबरें तो आपको याद होंगी इलेक्टोरल बॉन्ड को जब सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया तब यही कहा कि यह कानून सूचना के अधिकार कानून की बुनियाद के खिलाफ है भले सुप्रीम कोर्ट को फैसला सुनाने में कई साल लग गए लेकिन सरकार की नियत साफ नहीं थी इस फैसले से समझ आ गया इतना बड़ा घोटाला सबके सामने चलता रहा उसके बाद भी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया कंपनियों का नाम छापने में आना-कानी कर रहा था तब सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई और सच सामने आया आपको यह तो पता चल ही गया होगा कि 2024 का चुनाव समाप्त होने के बाद बीजेपी का खजाना बढ़ गया 4185 करोड़ ज्यादा पैसा आ गया इतना पैसा एक पार्टी के पास कहां से आ रहा है कौन चंदा दे रहा है अगर कोई इसकी डिजिटल जानकारी लेकर छाप दे नाम के साथ छाप दे तो क्या उस पर जुर्माना लगेगा 250 करोड़ का सीएचआरआई के वेंकटेश नायक की एक रिपोर्ट काफी चर्चा में है इसके मुताबिक 22 दलों का बैलेंस चुनाव के समय जो था चुनाव की समाप्ति के बाद 31% से अधिक बढ़ गया अकेले बीजेपी का 84% से अधिक बढ़ा है बीजेपी सबसे अधिक पैसा खर्च करती है तब भी उसका फंड इतना बढ़ गया कई हजार करोड़ लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने से पहले बीजेपी के खाते में 5921 करोड़ थे चुनाव के बाद यह बढ़कर ₹1107 करोड़ हो गए अब अगर कोई पत्रकार इसकी कोई जांच करेगा फंड के बारे में पता लगाएगा किसने दिया कुछ नाम छाप देगा तो क्या डीपीडीपी एक्ट के नए नियमों के मुताबिक उस पर करोड़ों का जुर्माना लगा दिया जाएगा सरकार को इस पर स्पष्टता जाहिर करनी चाहिए सरकार के पास हमारे आपके बारे में कितनी जानकारी होती है सुरक्षा कारणों से सरकार कितनी और जानकारियां जुटा लेती है स्टेट यानी राज्य आपसे हर तरह की जानकारी ले सकता है जांच के नाम पर फर्जी मूकदमे कर जांच के नाम पर आपकी सारी निजी जानकारी ली जा सकती है लेकिन आप नागरिक के नाते अगर जानकारी मांगेंगे तो यह कहकर नहीं दी जाएगी कि पर्सनल है 2005 में सूचना का अधिकार कानून बना था 20 साल में इस कानून ने ऐसे ऐसे आरटीआई कार्यकर्ता तैयार कर दिए हैं जो अपनी जान पर खेलकर सरकार के कोने-कोने से भ्रष्टाचार के दीमक को खोज निकालते हैं इस कानून को अपना कानून समझिए यह नहीं रहेगा तो अब आप भी नहीं रहेंगे ना सूचनाएं मिलेंगी ना आप सवाल कर पाएंगे।


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